नई दिल्ली। भोजपुरी सिनेमा की चर्चित अभिनेत्री-गायिका अक्षरा सिंह इस बार सामाजिक विचारों और परंपराओं पर खुलकर बोल रही हैं। उन्होंने बताया है कि कैसे वे छठ महापर्व अपने तरीके से मनाती हैं, और क्यों उनका मानना है कि इस व्रत-पूजा के लिए शादीशुदा होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं होनी चाहिए।
सामाजिक सवालों का सामना
पिछले दो सालों से अक्षरा छठ पूजा पूरी श्रद्धा से कर रही हैं। लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह सवाल भी सुनने को मिले — शादीशुदा नहीं हो, तो यह व्रत क्यों?उन्होंने मीडिया से कहा, यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि छठ का व्रत सिर्फ इसलिए किया जाए कि मुझे अच्छा पति मिलेगा या संतान होगी। पूजा और आस्था किसी बंधन में नहीं बंधती।यह स्पष्ट बयान उन्होंने इस बात को लेकर दिया कि अविवाहित महिलाएं भी इस पर्व का वैध हिस्सा हो सकती हैं। यह बात समाज में परंपरागत दृष्टिकोण को चुनौती देती है।
परंपरा में बदलाव की जरूरत
एक पोस्ट में अक्षरा ने छठ पूजा के एक रस्म-संस्कार पर सवाल उठाया। बन ना कवन देव कहरिया, दौराघाटे फुहडय- यह पारम्परिक गीत सुनकर उन्होंने पूछा कि अगर पूजा-व्रत की सारी जिम्मेदारी महिलाएं उठाती हैं, तो क्यों केवल पुरुष “दौरा” (चरण या प्रसाद लेकर घाट जाना) ले जाते हैं? उसका तात्पर्य यह है कि परंपराएं समय के साथ बदल सकती हैं, और महिलाओं को पूजा-समारोह में बराबरी का स्थान मिलना चाहिए।
एक भावुक-किस्सा: बचपन से जुड़ी
अक्षरा ने साझा किया कि छठ पूजा का महत्व उन्हें बचपन में एक घटना से महसूस हुआ। जब वे लगभग 5 साल की थीं, तब एक छठ गीत पर उन्होंने मज़ाक किया था। उनके अनुसार उनसे मां ने बहुत सख्ती से कहा था। मेरे पास इतना नहीं मालूम कि वो गीत क्या कहता है, पर उस मार ने मुझे यह बताकर दिया कि यह पर्व सिर्फ दिखावा नहीं, आस्था है।यह बात उन्होंने अपने दिल में बसा ली और आज उसी आस्था से व्रत रख रही हैं।
आस्था-स्वतंत्रता का नया संदेश
अक्षरा का मानना है कि छठ पूजा सिर्फ वैवाहिक स्थिति, पति-संतान या सामाजिक अपेक्षा से बँधी नहीं हो सकती। उन्होंने कहाआज मैं स्वतंत्र हूं। सच्ची नीयत से पूजा करने के लिए। शादीशुदा होना जरूरी नहीं।उनका यह कथन एक प्रकार से सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देने जैसा है। इस पूरी बहस में हमें एक स्पष्ट संदेश मिलता है: पूजा-व्रत आस्था का मामला है, न कि सिर्फ संस्कार या सामाजिक नियमों का। अक्षरा सिंह इस पहलू को उजागर कर रही हैं कि परंपरा में बदलाव की गुंजाइश है और महिलाओं को भी पूजा-समारोहों में पूरी भागीदारी मिलनी चाहिए।यह एक नया दृष्टिकोण है, जो पुरानी परंपराओं और समाज के अपेक्षाओं को नए आयाम देता है।
