नर्मदापुरम में ज़मीन की कीमत अब भावनाओं से नहीं, फ़ाइलों से तय होती है —
जहां जनता की ज़रूरतें हाशिये पर हैं, वहीं “विरासत” के नाम पर करोड़ों की जमीनें यूँ ही ठिकाने लग जाती हैं।
ऐसे में अगर कोई सवाल करे, तो उसे राजनीति कहा जाता है।
हाल ही में विधायक सीताशरण शर्मा ने वही किया जो शायद प्रशासन को बहुत पहले कर लेना चाहिए था —
वे खुद पुरातत्व संग्रहालय पहुंचे, रिकॉर्ड देखे, और पन्नों में दबे आंकड़ों से एक सच्चाई निकाली —
पूरा महीना बीता, और संग्रहालय में कुल सत्रह दर्शक आए।
अब सवाल यह नहीं कि संग्रहालय ज़रूरी है या नहीं,
सवाल यह है कि क्या बेशकीमती जमीन का इस्तेमाल सत्रह लोगों की याद में किया जाना चाहिए?
विधायक ने इस आवंटन को रद्द करने की मांग की, और शहर में चर्चा का माहौल गर्म हो गया।
प्रशासन के पास तर्क हैं, और जनता के पास सवाल —
कहते हैं यह संग्रहालय “संस्कृति की धरोहर” है,
पर जब ताले पर धूल और आंगन में सन्नाटा जमे,
तो संस्कृति भी पूछती है — क्या मैं फाइलों में ही रह जाऊँ?
शहर में लोग अब मज़ाक में कहते हैं —
“संग्रहालय में जाने से ज़्यादा भीड़ तो आरटीओ दफ्तर में लगती है!”
पर मज़ाक के पीछे एक कसक है —
क्योंकि यह शहर हर बार विकास के नाम पर अपनी जमीनें खोता है,
और बदले में मिलता है — एक और बंद दरवाज़ा, जिस पर लिखा होता है “प्रवेश निषेध।”
विधायक का सवाल शायद छोटा लगे,
पर उसमें जनता की वो आवाज़ छिपी है जो अक्सर अनसुनी रह जाती है।
सत्रह दर्शकों के आंकड़े से ज़्यादा डरावना यह है
कि शहर की सोच भी अब फाइलों जितनी ही सीमित होती जा रही है।
