चिंतन लेख ; – व्यंग्य और विवेक के संग।
शहर अब पहले जैसा नहीं रहा।
हर गली में कोई न कोई “वेग” घूमता है — कोई वाणी का, कोई मन का, कोई क्रोध का।
लोग अब चलने से ज़्यादा बोलने लगे हैं, और सोचने से ज़्यादा प्रतिक्रिया देने लगे हैं।
जैसे किसी ने भीतर के “धैर्य बटन” को ही ऑफ कर दिया हो।
रूप गोस्वामी का वह पुराना श्लोक याद आता है —
“वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं…”
मतलब — जिसने अपनी ज़बान, मन, गुस्सा, जीभ, पेट और नीचे के वेग पर काबू पा लिया,
वही इस धरती का असली गुरु है।
बाकी तो सब अपने-अपने वेग के गुलाम हैं।
सोचिए — आज ज़बान का वेग सबसे बड़ा आतंक है।
सोशल मीडिया पर कोई कुछ कहे तो जवाब तुरंत चाहिए।
जैसे चुप रह जाना अपराध हो गया हो।
पहले लोग सोचते थे, अब “पोस्ट” करते हैं।
मन का वेग भी अब हाई स्पीड नेटवर्क से चलता है —
हर पाँच मिनट में नई चाह, नया डर, नया ट्रेंड।
क्रोध का वेग तो मानो शहर का स्थायी नागरिक हो गया है —
ट्रैफिक में, बाजार में, मीटिंग में —
हर जगह लोग ऐसे फटते हैं जैसे अंदर बारूद रखी हो।
फिर आती है जीभ और पेट की जोड़ी —
एक कहती है “स्वाद दो”, दूसरी कहती है “थोड़ा और”।
और जननेन्द्रिय का वेग तो हर विज्ञापन की आत्मा बन गया है —
जहाँ देखो वहाँ “आकर्षण” बिक रहा है, और आत्मा कोने में बैठी सोचती है —
“मुझसे तो किसी ने पूछा ही नहीं!”
रूप गोस्वामी कहते हैं —
जो इन छह वेगों को जीत ले, वही पूरी पृथ्वी को शिक्षा दे सकता है।
मतलब वही असली “इन्फ्लुएंसर” है —
बाकी सब तो इंद्रियों के ठेकेदार हैं, जो भीतर की हार छिपाने को बाहर चमक बेच रहे हैं।
शहर को अब गुरु नहीं, “धीर” चाहिए।
जो वाणी से आग नहीं, शांति फैलाए।
जो मन के तूफ़ान में भी स्थिर रह सके।
जो गुस्से के बदले मुस्कान रखे।
जो स्वाद से ज़्यादा सेवा का स्वाद जाने।
जो शरीर के बजाय आत्मा से जिए।
कभी-कभी लगता है —
अगर इस श्लोक को शहर की हर चौक पर लिख दिया जाए,
तो शायद आदमी फिर से “मनुष्य” बन सके।
— संजीव दे रॉय चेदीदास
( आत्मसंयम की तलाश में भटकता शहर )
