नई दिल्ली। भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते को लेकर लगातार बातचीत हो रही है और दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों में नई संभावनाएं दिखाई दे रही हैं. इसी माहौल में देश की सबसे बड़ी निजी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने एक ऐसा फैसला किया है जिसने वैश्विक ऊर्जा बाज़ार में हलचल बढ़ा दी है. मुकेश अंबानी की अगुवाई वाली रिलायंस ने यह घोषणा की है कि गुजरात के जामनगर में स्थित उसकी विशेष आर्थिक क्षेत्र वाली रिफाइनरी में अब रूसी कच्चे तेल का उपयोग पूरी तरह रोक दिया गया है. यह रिफाइनरी दुनिया के सबसे बड़े रिफाइनिंग कॉम्प्लेक्स का हिस्सा है और यहां से अमेरिका यूरोप और अन्य देशों को पेट्रोल और डीज़ल बड़े पैमाने पर भेजा जाता है.
EU के प्रतिबंधों ने बदल दिया गेम
रिलायंस का यह फैसला अचानक नहीं लिया गया बल्कि इसके पीछे यूरोपीय संघ की सख्त नीतियां बड़ा कारण बनी हैं. यूरोपीय संघ ने रूस की ऊर्जा आय को कमजोर करने के लिए कई कठोर प्रतिबंध लगाए हैं जिनमें रूसी कच्चे तेल से तैयार ईंधन के आयात पर रोक भी शामिल है. चूंकि रिलायंस की SEZ रिफाइनरी यूरोप को बड़े पैमाने पर पेट्रोल और डीज़ल सप्लाई करती है इसलिए कंपनी के लिए इन नियमों का पालन करना ज़रूरी हो गया था.
कंपनी के प्रवक्ता ने पुष्टि की कि बीस नवंबर से रिफाइनरी में रूसी कच्चे तेल की सप्लाई पूरी तरह बंद कर दी गई है और एक दिसंबर से निर्यात होने वाले सभी उत्पाद गैर रूसी कच्चे तेल से तैयार किए जाएंगे. यह बदलाव परिचालन के स्तर पर बहुत बड़ा है क्योंकि रिफाइनरी को पहले से चल रहे अनुबंधों सप्लाई चैन और उत्पादन प्रक्रिया को पूरी तरह नए कॉन्फिगरेशन पर चलाना पड़ रहा है.
रिलायंस भारत में रूसी तेल का सबसे बड़ा खरीदार रही
यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद रूस ने एशियाई देशों को भारी छूट पर कच्चा तेल बेचना शुरू किया और भारत इसकी सबसे बड़ी मंजिल बन गया. रिलायंस ने इस अवसर का फायदा उठाते हुए रूसी तेल की खरीद बढ़ाई और जल्द ही भारत में रूसी कच्चे तेल की सबसे बड़ी खरीदार बन गई. जामनगर का विशाल रिफाइनरी परिसर दो हिस्सों में बंटा है. पहला SEZ रिफाइनरी परिसर जहां से तैयार ईंधन सीधे निर्यात होता है और दूसरा घरेलू रिफाइनरी परिसर जो भारत की आवश्यकताओं को पूरा करता है.
SEZ रिफाइनरी यूरोप और अमेरिका जैसे संवेदनशील बाज़ारों को सेवा देती है इसलिए वहां रूसी तेल का उपयोग जारी रखना कंपनी के लिए जोखिम भरा हो सकता था. यही वजह है कि EU के नए नियम लागू होते ही रिलायंस को अपनी सप्लाई चेन में बड़ा फेरबदल करना पड़ा. कंपनी के लिए यूरोपीय बाज़ार बेहद महत्वपूर्ण है और वहां की मांग को देखते हुए यह रणनीतिक निर्णय आवश्यक माना गया.
अमेरिकी दबाव भी बना बड़ी वजह
यह फैसला ऐसे समय लिया गया है जब अमेरिका रूस पर लगातार नई पाबंदियां लागू कर रहा है. अक्टूबर में अमेरिका ने रूस की प्रमुख तेल कंपनियों लुकोइल और रोसनेफ्ट पर कठोर प्रतिबंध लगाए. इनके प्रभाव के कारण उन कंपनियों से तेल खरीदने वाले देशों की स्थिति चुनौतीपूर्ण हो गई. रिलायंस ने रोसनेफ्ट के साथ लगभग पांच लाख बैरल प्रति दिन कच्चा तेल खरीदने का दीर्घकालिक करार किया हुआ था लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण इस करार का भविष्य पहले ही संकट में आ गया था.
इसी दौरान अमेरिका ने भारत से होने वाले कुछ आयात पर पचास प्रतिशत तक का भारी शुल्क लगा दिया. विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कदम आंशिक रूप से भारत द्वारा रूस से बड़े पैमाने पर तेल खरीदने के विरोध में उठाया गया था. ऐसे माहौल में रिलायंस का रूसी तेल छोड़ना केवल व्यावसायिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है.
आगे क्या
रिलायंस का यह कदम वैश्विक ऊर्जा बाज़ार में एक नए संतुलन की ओर इशारा करता है. रूस से भारत की तेल खरीद ने पिछले दो वर्षों में रिकॉर्ड बनाए हैं लेकिन अब वैश्विक राजनीति और व्यापार नीतियों के चलते कंपनियों को नए सोर्सिंग मॉडल अपनाने पड़ सकते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि रिलायंस भविष्य में अपनी रिफाइनरियों के लिए कौन से देशों से तेल खरीद बढ़ाती है और निर्यात बाज़ार में अपनी स्थिति कैसे मजबूत रखती है.
