उनका तर्क था कि चीन जैसे देशों ने ऐसी मेहनती संस्कृति से तेज विकास हासिल किया। मूर्ति ने बताया कि उनकी कंपनी कैटामरन के कुछ अधिकारी चीन गए थे ताकि वे वहां की असली कामकाजी संस्कृति को समझ सकें। वहां एक कहावत है, “9, 9, 6” यानी “सुबह 9 से रात 9 तक, हफ्ते में 6 दिन।”
‘996’ वर्क कल्चर का मतलब है कि सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक, हफ्ते में 6 दिन काम करना। यानी कुल 72 घंटे काम करना, जो सामान्य कामकाजी घंटों से कहीं ज्यादा है। यह प्रथा खासकर चीन की टेक कंपनियों में ज्यादा प्रचलित थी।
चीन में कैसे शुरू हुआ 996 कल्चर
2010 के दशक में चीन की टेक इंडस्ट्री बहुत तेजी से बढ़ रही थी। मार्केट में आगे बढ़ने की होड़, कंपनियों की स्पीड और ज्यादा मेहनत की मांग ने ‘996’ को आम बना दिया। उस समय के कुछ मशहूर उद्यमी जैसे जैक मा ने इस कल्चर को एक प्रकार की ‘आशीर्वाद’ के रूप में प्रचारित किया।
996 कल्चर का बुरा असर
समय के साथ इन लंबे घंटों का बुरा असर दिखने लगा। कर्मचारियों में थकान, मानसिक तनाव, और काम-जीवन संतुलन बिगड़ने जैसी दिक्कतें आम हो गईं। कई कंपनियों में ज्यादा मेहनत के कारण बीमारियां और यहां तक कि मौत तक के मामले सामने आए। कर्मचारियों ने डिजिटल प्लेटफार्म पर 996 का विरोध किया और 2021 में चीन की सरकार ने इसे अवैध घोषित कर दिया।
996 की कानूनी रोक के बाद क्या बदला?
चीन की अदालतों ने साफ किया कि 996 नियम कानून के हिसाब से गलत है। फिर भी ये कल्चर पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। कई कंपनियों ने नए नाम से ओवरटाइम जारी रखा या नियमों में बदलाव किए। रिपोर्ट्स के मुताबिक चीन में औसतन 48.5 घंटे प्रति सप्ताह काम अब भी होता है, जो कॉन्ट्रैक्ट के हिसाब से ज्यादा है।
दुनिया के दूसरे देशों में काम के घंटे
यूरोप जैसे देशों में जहां औसतन बहुत कम घंटे काम होता है (जैसे नीदरलैंड्स में 32.1 घंटे/सप्ताह), वहीं भारत और चीन जैसे देशों में हफ्ते के 50 घंटे से ज्यादा आम बात है। शोध बताते हैं कि ज्यादा घंटे काम करने से उत्पादकता बढ़ती नहीं, बल्कि 50 घंटे के बाद और गिरने लगती है।
भारत के लिए उत्पादकता या लंबे घंटे?
भारत में भी लंबे कामकाजी घंटे आम हैं, पर उत्पादकता अभी भी कम है। विशेषज्ञों के मुताबिक, असली जरूरत काम के घंटों को बढ़ाने की नहीं, बल्कि स्मार्ट तरीके, टेक्नोलॉजी, कौशल और बेहतर प्रबंधन से उत्पादकता बढ़ाने की है।
स्मार्ट वर्क, न कि हार्ड वर्क
चीन के अनुभव से यही सीख मिलती है कि विकास के लिए जरूरी है कि काम की गुणवत्ता और श्रमिकों की सेहत पर ध्यान दिया जाए, न कि केवल घंटों की संख्या बढ़ाई जाए। कंपनियों और नीतिगत स्तर पर संतुलित और व्यावहारिक बदलाव ही टिकाऊ विकास ला सकते हैं।
