शास्त्र घोषणा करते हैं—“सभी ऋतुएँ मनुष्य के कल्याण के लिए हैं।” प्रकृति हर मौसम में कुछ नया देती है, पर मज़ाल है कि मनुष्य उसे स्वीकार कर ले। गर्मी पड़े तो पूजा स्थगित—“ज़्यादा धूप है।” बारिश आए तो सेवा रद्द—“रास्ता कीचड़ है।” सर्दी आए तो भगवद्-चिंतन में भी रजाई की शर्त—“ठंड में ध्यान कहाँ लगता है!” सवाल यह नहीं कि ऋतुएँ कैसी हैं, सवाल यह है कि मनुष्य कब अपनी सुविधा के बाहर निकलेगा..?
जीवन छोटा है—यह बात हम तब मानते हैं जब कोई आस-पास का व्यक्ति चला जाता है। बाकी दिनों में हम ऐसे जीते हैं जैसे हजार साल की लीज़ पर पृथ्वी किराए पर ली हो। श्लोक कहता है—हर समय शुभ है। कल्याण का, कर्म का, जागरण का, क्योंकि मनुष्य रूप यूँ ही नहीं मिला, आत्मा ने कई जन्मों की रस्साकशी के बाद यह देह पाई है। अब आगे बढ़ना हमारी जिम्मेदारी है। श्रीमद भगवद्गीता (9.25) में भगवान श्रीकृष्ण ने रास्ता स्पष्ट कर दिया— जिसे पूजोगे, उसी लोक जाओगे। देवताओं की पूजा.? देव लोक। लेकिन भक्ति.? सीधा भगवत धाम.. पर शहर और गाँव दोनों की अपनी समस्याएँ हैं।
शहर में समय नहीं, गाँव में साधन नहीं। और दोनों जगह बहाने बराबर.. इधर शहरों में आध्यात्मिकता “वीकेंड एक्टिविटी” बन चुकी है—जैसे जिम या कैफे का नया विकल्प.. उधर गाँव में लोग कहते हैं—“खेती-बाड़ी में सारा दिन निकल जाता है, सत्संग फिर कभी।” दोनों ही मामले में भक्ति को इंतज़ार कराया जा रहा है—जबकि भक्ति तो “अहैतुकी अप्रतिहता” है, यानी बिना स्वार्थ भी हो सकती है और बाधाएँ भी इसे रोक नहीं सकतीं। मगर मनुष्य इसे अपने बहानों से आसानी से रोक लेता है। नर्मदापुरम में यह स्थिति और दिलचस्प है। यहाँ मंदिरों की संख्या बढ़ रही है, पर मन के मंदिरों के पट रोज़ नहीं खुलते। आध्यात्मिक आयोजन होते हैं, पर उनमें वही लोग पहुँचते हैं जो हर बार आते हैं। अधिकांश लोग तो यह मानकर चलते हैं कि भगवान को भी RSVP भेजा जाएगा—जब समय होगा, आ जाएँगे।
शहरनामा का निष्कर्ष:
प्रकृति का कैलेंडर ठीक है। बिगड़ा कैलेंडर तो मनुष्य का है—जहाँ हर शुभ काम के आगे तारीख ढूँढ़ी जाती है, समय टटोला जाता है और सुविधा तौली जाती है।पर भक्ति का समय “सही मौसम” नहीं माँगता—सही मन माँगता है और वह मन ऋतुओं से नहीं, निर्णय से बदलता है।
शुभ रात्रि
हरे कृष्ण…
भक्त चेदीराज दास
