समीक्षा – डॉ. पुष्पा रानी वर्मा (पूर्व उपनिदेशक, एस.सी.ई.आर.टी., उत्तराखण्ड, देहरादून)
काल की अबाध गति में प्रवाहित मानव चेतना सदैव आत्मान्वेषण एवं आत्मविस्तार की सहज अभिव्यक्ति हेतु उत्कंठित रही है। शब्दों के माध्यम से कल्पना और यथार्थ का समन्वय कर रचनाकारों ने बाह्य जगत के चित्रण में अपनी अंतस् चेतना के अनछुए आयामों का संस्पर्श किया है। इन्हीं आयामों को लेखिका मेनका त्रिपाठी ने अपनी कृति “धरा के पंख” में सजीव किया है, जहाँ आत्मबोध की सहज अभिव्यक्ति संस्मरणात्मक रूप में एक विशिष्ट जीवन-दृष्टि प्रस्तुत करती है।
यह कृति डायरी, रेखाचित्र और संस्मरण जैसी विधाओं की सीमाओं को स्पर्श करते हुए एक संस्मरणात्मक शब्द-चित्र का रूप धारण करती है। लेखिका की आंतरिक और बाह्य यात्रा के दौरान शब्द सजीव पात्रों की भाँति हर दृश्य और हर अनुभव को आत्मसात करते चलते हैं। इस संस्मरण में एक भारतीय स्त्री का संघर्ष स्वयं मुखर होता है — घर की सीमाओं में रहने वाली सरल, संकोची और महत्वाकांक्षी नारी जब अपने छोटे से शहर से अकेले आत्मविश्वास और साहस के सहारे विदेश यात्रा पर निकलती है, तो यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि आत्मविकास की यात्रा बन जाती है।
लेखिका के शब्दों में —
> “स्त्री की शक्ति किसी प्रमाण या बाहरी सहारे पर निर्भर नहीं करती, वह अपनी जड़ों से, अपनी चेतना और मौन ऊर्जा से पोषित होती है।”
मॉरीशस यात्रा के प्रसंगों में लेखिका का आत्मबोध गहराई से उभरता है। विमान यात्रा के भय से लेकर विश्व हिन्दी सम्मेलन में उपस्थिति दर्ज कराने तक का उनका अनुभव आत्मविश्वास की विजयगाथा है। ग्रैंड बेसिन (गंगा तालाब), स्कूबा डाइविंग, चमरैल, पोर्ट लुईस, अप्रवासी घाट — प्रत्येक स्थान पर लेखिका का आत्मचिंतन और संवेदना का सूक्ष्म स्पर्श दिखाई देता है।
विशेष रूप से अप्रवासी घाट के म्यूज़ियम में गिरमिटिया भारतीयों की पीड़ा का चित्रण अत्यंत भावपूर्ण है —
> “मैंने उस नाव को छूने की कोशिश की। ऐसा लगा जैसे लकड़ी की दरारों में अब भी साँसें क़ैद हैं जिन्हें समुद्र निगल नहीं पाया।”
यह एक ऐसा क्षण है जब लेखिका की संवेदना पाठक के हृदय में प्रवाहित होकर उसे द्रवित कर देती है।
भाषा की दृष्टि से यह कृति अत्यंत सहज, स्वाभाविक और काव्यात्मक है। लेखिका ने अपने अनुभवों को अलंकारिकता और चित्रात्मकता के साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि पाठक दृश्य को आँखों के सामने घटित होता देखता है।
> “झिझक की ज़मीन से उठी…”
“संकोच के बादलों को चीरती…”
जैसे प्रयोग न केवल सौंदर्यपूर्ण हैं बल्कि स्त्री-मन की आत्मविकास यात्रा का प्रतीक भी बनते हैं।
लेखिका का आत्मचिंतन हर प्रसंग में झलकता है—
> “वहाँ के बच्चे किताबें नहीं खोलते, दृष्टिकोण खोलते हैं।”
निष्कर्षतः, “धरा के पंख” विश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक और भावनात्मक शैलियों का सुंदर संगम है। कहीं-कहीं कथ्य की पुनरुक्ति दिखाई देती है, किंतु भाषा और भाव की सहजता में वह अप्रत्याशित रूप से स्वाभाविक लगती है।
यह कृति एक सफल एवं सजीव संस्मरण है जिसमें लेखिका के साथ-साथ पाठक भी उड़ान के सहभागी बन जाते हैं। प्रत्येक घटना और दृश्य की अनुभूति में वे स्वयं को लेखिका के अनुभव का हिस्सा पाते हैं।
“धरा के पंख” न केवल एक स्त्री के आत्मान्वेषण की यात्रा है, बल्कि यह हर उस व्यक्ति की प्रेरक कहानी है जो भय को हराकर अपने स्वप्नों को उड़ान देना चाहता है
धरा के पंख
लेखिका: मेनका त्रिपाठी
शैली:यात्रा संस्मरण
प्रकाशक: [पेपर पब्लिश]
मूल्य: ₹ [299/]
प्रकाशन वर्ष: 2025]
समीक्षा – डॉ. पुष्पा रानी वर्मा
(पूर्व उपनिदेशक, एस.सी.ई.आर.टी., उत्तराखण्ड, देहरादून)
