खंडवा। कभी कुपोषण के लिए चर्चा में रहे खालवा ब्लॉक के आदिवासी अब एक नई त्रासदी झेल रहे हैं पलायन की मजबूरी और बंधुआ मजदूरी का दंश। खेतों में काम खत्म होते ही यहां के परिवार स्टाम्प पेपर पर एग्रीमेंट करके महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं।गांवों के गांव खाली हो चुके हैं, घरों में सिर्फ बुजुर्ग और मासूम बच्चे रह गए हैं। जो बाहर जा रहे हैं, उनमें कई बंधुआ मजदूर बन चुके हैं, जबकि कई महिलाओं और नाबालिग बेटियों के साथ बलात्कार और हत्या जैसी वारदातें सामने आई हैं।
खालवा ब्लॉक से 90 फीसदी गांवों के लोग कर रहे पलायन
खंडवा जिले का खालवा ब्लॉक आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। 2.5 लाख की आबादी वाले इस ब्लॉक में 86 ग्राम पंचायतें और 147 गांव शामिल हैं। सोयाबीन की फसल कटते ही यहां रोजगार ठप हो जाता है। लोग गन्ना कटाई और निर्माण कार्य के लिए महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और गुजरात की ओर निकल पड़ते हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि 90 फीसदी गांवों से लोग पलायन कर चुके हैं। गांवों में अब सिर्फ वृद्ध और छोटे बच्चे दिखाई देते हैं।
स्टाम्प पेपर पर मजदूरी का सौदा
जांच में सामने आया कि, आदिवासी मजदूरों को ठेकेदार नोटरी एग्रीमेंट पर बाहर ले जा रहे हैं। खालवा के आड़ाखेड़ा गांव के हीरालाल काजले ने महाराष्ट्र के सोलापुर निवासी ठेकेदार लिंगेश्वर एकनाथ शिंदे से समझौता किया। समझौते में हीरालाल के परिवार के 10 जोड़ों यानी 20 लोगों को गन्ना काटने के लिए भेजा गया। हर जोड़े को 50-50 हजार रुपए एडवांस मिले कुल सौदा 5 लाख रुपए का हुआ।
हरसूद बार एसोसिएशन के अध्यक्ष जगदीश पटेल का कहना है कि हर साल सैकड़ों ऐसे एग्रीमेंट होते हैं।
गांव के पटेल ने बताया कि, केवल खालवा से ही करीब 2,000 स्टाम्प एग्रीमेंट हर साल बनते हैं, जिनमें हर एग्रीमेंट में 20 से लेकर 200 मजदूर तक शामिल होते हैं।
मनरेगा बेअसर, मजदूरी नहीं मिलती
खालवा के जूनापानी गांव में ज्यादातर घरों पर ताले लगे थे।
गांव के बलिराम और कैलाश बताते हैं,मनरेगा में काम मुश्किल से एक-दो हफ्ते चलता है। कई बार सालों तक मजदूरी नहीं मिलती। मजबूरी में बाहर जाना ही पड़ता है।
पलायन करने वाले ज्यादातर लोग कोरकू जनजाति से हैं।
राजनीतिक रूप से यह क्षेत्र हरसूद विधानसभा के अंतर्गत आता है।
विधायक विजय शाह पिछले 40 वर्षों से लगातार विधायक हैं और फिलहाल प्रदेश सरकार में जनजातीय कार्य मंत्री भी हैं।
सांसद दुर्गादास उईके केंद्र सरकार में जनजातीय कार्य मंत्री हैं, लेकिन हालात जस के तस हैं।
बाहर बेहतर मजदूरी, लेकिन शोषण भी
जिला पंचायत सीईओ डॉ. नागार्जुन बी. गौड़ा के अनुसार,
मनरेगा के तहत खालवा क्षेत्र में 150 दिन का रोजगार दिया जाता है, पर मजदूरी दर केवल 261 रुपए प्रतिदिन है।
वहीं महाराष्ट्र और कर्नाटक में मजदूरों को 800 से 1000 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं।
यही वजह है कि पूरा परिवार पलायन कर संयुक्त रूप से गन्ना कटाई करता है।
रेप और हत्या की दर्दनाक घटनाएं
रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले आदिवासी मजदूर न केवल शोषण का शिकार हो रहे हैं बल्कि कई दिल दहला देने वाली घटनाओं का शिकार भी बने हैं।
हरदा में मजदूर की हत्या
20 अक्टूबर 2025 खालवा ब्लॉक के इमलीढाना निवासी सुखलाल कलमें (45) की हरदा जिले में खेत मालिक ने हत्या कर दी।
कारण था मजदूरी का भुगतान न होना।
सुखलाल ने जब काम छोड़ने की धमकी दी, तो किसान मलिक रामदीन ने उसे शराब पिलाई और लाठी से पीट-पीटकर मार डाला।
पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भेजा।
पुणे में नाबालिग से तीन साल तक रेप
खालवा की 17 वर्षीय किशोरी पुणे जिले की गुड़ फैक्ट्री में मजदूरी कर रही थी।
वहां यूपी के सहारनपुर निवासी कर्मचारी ने उसका तीन साल तक यौन शोषण किया।
लड़की जब छह माह की गर्भवती हुई, तब परिजनों को पता चला।
आरोपी को रेप और पॉक्सो एक्ट में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
9 साल की बच्ची से रेप और हत्या — आरोपी 12 साल बाद बरी
30 जनवरी 2013 को खंडवा के सुरगांव जोशी गांव में मजदूर की 9 वर्षीय बेटी लापता हुई।
अगले दिन उसका शव खेत में मिला।
मेडिकल जांच में रेप की पुष्टि हुई।
आरोपी अनोखीलाल को कोर्ट ने तीन महीने में फांसी की सजा सुनाई।
हाईकोर्ट ने सजा बरकरार रखी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में डीएनए रिपोर्ट के आधार पर आरोपी बरी हो गया।
सरकारी योजनाएं नाकाम, पलायन रोकने की चुनौती
प्रशासन ने एक बगिया, मां के नाम योजना के तहत 300 किसानों को जोड़ने की पहल की है, ताकि उन्हें खेती के साथ स्थायी मजदूरी मिले। लेकिन वास्तविकता यह है कि जब तक स्थानीय रोजगार नहीं बढ़ेगा, तब तक यह पलायन रुकना मुश्किल है।
गांव सूने, सपने अधूरे
खालवा के गांवों में अब सिर्फ बुजुर्ग और बच्चे बचे हैं।माता-पिता के बिना ये बच्चे स्कूलों से दूर, पशुओं के साथ दिन काटते हैं। हर साल दिवाली के बाद यह इलाका भूतिया गांवों में बदल जाता है जहां सिर्फ सन्नाटा और उम्मीदों की राख रह जाती है।जब पेट खाली हो, तो अपने ही गांव पराये लगने लगते हैं।खालवा के आदिवासियों की यही सच्चाई है भूख, बेरोजगारी और बंधुआ मजदूरी की त्रासदी।
