मनुष्य के सात शरीर, जिसमें समाया है सारा ब्रम्हाण्ड
आत्माराम यादव पीव चीफ एडीटर हिन्दसंतरी डाट काम
कुरूक्षेत्र युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य अर्जुन का युद्ध से इंकार के पश्चात योगेश्वर कृष्ण द्वारा दिव्य दृष्टि प्रधान कर अपने विश्वरूप के दर्शन कराने व गीताज्ञान की अमृतमयी सत्ता का विश्लेषण करने का अगर कोई साक्षी रहा है तो वह दिव्यदृष्टि प्राप्त संजय रहा है जो शब्दतयाः धृतराष्ट को सुना रहा था। हमारा धर्म, आध्यात्म सात लोकों का वर्णन करते हुये उनके नाम भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपःलोक, महःलोक, जनःलोक और सत्य लोक बतलाता है वही योगशास्त्र में मानव शरीर के सात चक्रों का उल्लेख क्रंमशः मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार चक्र नाम से किया गया है। ऐसा नहीं कि कुरूक्षेत्र युद्ध की उस सेना में इन सात चक्रों से प्राप्त अलौकिक ज्ञान से वीर-महावीर, रथी, महारथी और धर्मराज स्वरूप युधिष्टिर, गंगापुत्र भीष्म, गुरूद्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि परिचित न रहे हो और स्थूल शरीर की इस स्थूलघटना को विस्मय से देखते रहे जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन की चेतना को प्रकाशमान कर उनकी आत्मा की अति सूक्ष्मतम गहराईयाॅ में ज्ञान तंन्तुओं की परतें खोलते हुये ब्रम्हाण्ड की भीतरी सत्ता का बीजारोपन करने में सफल रहे है और महाभारत का महायुद्ध सम्पन्न करा सके।
मानव शरीर के विज्ञान को समझे, जो अनेक रहस्यमयी दिव्यताओं से अभिभूत है और इसमें सारा ब्रह्मांड समाया हुआ है। मानव शरीर के भीतर रक्त, मज्जा, मांस-पेशियां है जिनके भीतर ज्ञान तंतुओं की संरचना है, जिसके और भीतर मस्तिष्कीय विद्युत की कई परते है और प्रत्येक का अपना पृथक स्थान है। स्थूल लोक के भीतर उनकी सत्ता सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अतिसूक्ष्म होती चली गयी है जिनमें हम निवास करते है। ब्रम्हाण्ड के भीतर ब्रम्हाण्ड की सत्ता वैसे ही जैसे परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्त्रग्त उसकी परते खालने पर भीतर और भीतर एक अतिसूक्ष्म ब्रम्हाण्ड का प्रतिनिधित्व करने वाला आत्मबीज विद्यमान है। इस जीव शरीर को ब्रम्ह का प्रतीक प्रतिनिधि कहा है जिसमें सात लोक है, सात शरीर है, सप्त धातुयें है। रस, रक्त, माॅस, अस्थि, मज्जा, शुक्राणु धातुयें शरीर मे ंदेखी जाती है जिनके पृथक-पृथक स्थान नियत न होकर वे सभी एक दूसरे में समाये हुये है। चेतना शरीर भी इसी प्रकार सात शरीरों से मिलकर बना है जो एक के भीतर एक के क्रम में अपना अस्तित्व बनाये है।
आत्मा के सात शरीर होते हैं और जिन जिन परमाणुओं से वे सातों शरीर निर्मित होते हैं,उन्ही-उन्ही परमाणुओं से सात लोकों का भी निर्माण हुआ है जो निम्न लिखित हैं–स्थूल परमाणु से स्थूल शरीर की रचना होती है और वह स्थूल जगत में इसी शरीर से रहती है। इसी प्रकार सभी परमाणु, सभी शरीर और सभी लोकों को समझना चाहिए। मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने जो किया है उसमें 1/स्थूल या भौतिक शरीर-फिजिकल बाडी ,2/सूक्ष्म शरीर वासना या प्रेत शरीर, इथरिक बाॅडी, 3/सूक्ष्म या प्राण शरीर, 4/ मानस शरीर या मनोमय शरीर -मेन्टल बाॅडी, 5/आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बाडी, 6/ ब्रम्ह शरीर या देव शरीर कास्मिक बाडी एवं 7/निर्माण शरीर- बाडीनैस बाॅडी। इन सातों लोकों से मनुष्य के सातों शरीरों का सम्बन्ध होता है जिनके प्रवेश द्वारा मानव शरीर में सात चक्र के रूप में विद्यमान होते हैं। ये चक्र प्रवेश के द्वार होने के साथ साथ शक्ति के केंद्र और पदार्थों के केंद्र भी होते हैं।
स्थूल भौतिक शरीर- सप्तधातुओं से बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है जिसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। भौतिक शरीर और भौतिक जगत का सम्बन्ध पृथ्वी तत्त्व से होता है जिसका आधार है–मूलाधार चक्र, शरीर में इसकी स्थिति मेरुदण्ड के निचले सिरे पर है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है और इस शरीर में प्रायः इन्द्रिय चेतना ही जागृत होती है। जीवन के पहले सात वर्ष में भौतिक शरीर ही निर्मित होता है। बाकी सारे शरीर बीजरूप होते है, उनके विकास की संभावना होती है, लेकिन वे विकसित उपलब्ध नहीं होते। भूख सर्दी गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाॅ ही सूक्ष्म रहती है, पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में बने रहते है, पर मनुष्य के सातों शरीर क्रंमशः विकसित होते होते रहते है और दो वर्ष का होते हुये उसका सूक्ष्म शरीर जागृत होने लगता है, जिसे मानव शरीर भी कहा गया है। इच्छाओं और संवेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है जिसमें मान, अपमान, अपना पराया, राग-द्वेष, संतोष-असंतोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव इस शरीर को होते है।
स्थूल शरीर को सूक्ष्म शरीर भी माना गया है जिसमें विचार, बुद्धि का विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यता परक संस्कृति किशोरावस्था से वयस्क होने तक विकसित होने के साथ ये संवेदनायें जागृत होती है। फिजिकल में मनुष्य की उॅचाई बढ़ने के साथ शरीरगत अनुभ्ूातिया का सुख-दुख दूसरें में भाव सम्वेदनायें और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होती है और मनुष्यस्तर का ढ़ाचा तैयार हो जाता है। इस तीसरें शरीर में प्रवेश करते ही मनुष्य के अन्दर अनेक विशिष्टितायें आरम्भ आ जाती है जिसमें कलात्मक रसानुभूति से कलाकार, कवि, संवेदनओं के भाव लोक में विचरण करने वाला भक्त, दार्शनिक, करूणाद्र, उदार, देशवक्त आदि भाव चरम पर होते है वही उक्त स्तरों से हटकर विकृत वैचारिकता में लिप्त होने पर यही स्थिर शरीरधारी मनुष्य व्यसन, व्यभिचारजन्य कामों में रस लेकर कामी,रसिक बन जाता है। इससे परे महत्वाकाक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण लोगों में अपने को शामिल कर अपनी प्रतिभा का लोहा जगत से मनवा लेते है और सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते हुये इस मेन्टल वाडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता को सार्थक करते है।
1/ भाव शरीर वासना या प्रेत शरीर – इस शरीर में हमारी भावनाएं होती है। भाव शरीर को रसायनिक उर्जा नियंत्रित करती है। जिन्हें हम हार्मोंन्स भी कहते हैं। हार्मोंन्स अनेकों प्रकार की सुक्ष्म रसायनों से निर्मित होते है। हम भोजन के रूप में जो चीजें ग्रहण करते हैं। वहीं चीजें पचने के बाद विभिन्न रसायनों में परिवर्तित हो जाती है। हमारे शरीर के विभिन्न स्थानों पर कई अंतस्रावी ग्रंथियां होती है। जिनसे इन सुक्ष्म हार्मोन्स का रिसाव होता है। हमारे भीतर क्रोध, मोह घृणा, हिंसा और भय जैसी जितनी भी दुर्भावनाएं उठती है। वह इसी उर्जा के प्राकृतिक प्रभाव के कारण उठती है। सामान्यतः 14 वर्ष की अवस्था में यह उर्जा मानव शरीर में सक्रिय हो जाती है। यह उर्जा शरीर स्वाधिष्ठान चक्र से जुड़ा होता है। जो हमारे नाभि के करीब चार अंगुल नीचे स्थित होता है। जो मनुष्य अपनी भावनाओं के प्रति जागरूक हो कर इस ऊर्जा को विकसित कर लेता है। उसके अंदर प्रेम, क्षमा, अहिंसा करुणा और परोपकार जैसी अच्छी भावनाएं प्रबल होने लगती है
2/ स्वाधिष्ठान चक्र की दो संभावनाएं हैं जिसमें पहली मूलतः प्रकृति से प्राप्त होती है जिसमें भय, घृणा, क्रोध, हिंसा के भाव होते है वहीं दूसरी, इससे बिलकुल प्रतिकूल रूपान्तरण की स्थिति है-प्रेम, करुणा, अभय, मैत्री, वह संभव नहीं हो पाता। भाव वासना लोक(प्रेत शरीर) का सम्बन्ध इस चक्र में जल तत्व है। सात साल तक भाव शरीर का विकास होता है जिसमें सुख-दुख का अनुभव होता है और जिनके शरीर मे ंयह विकास होता है वे भावुक होते है और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाते है। भाव शरीर का भौतिक अस्तिव नहीं होता है इसलिये भौतिक शरीर के आरपार देखा नही जा सकता है पर भावों के आरपार जाया जा सकता है एवं भाव हमारे शरीर से निकलकर यात्रा कर सकते है और कहीं भी आ जा सकते है। कुछ लोग सात वर्ष से ज्यादा की आयु के अपरिपक्त मानसिक स्थिति से विकसित नहीं होते, भले उनका भौतिक शरीर पूर्ण विकसित हो जाये, ऐसे व्यक्तियों में और पशु में कोई अंतर नहीं होगा। सात वर्ष की आयु में भावों की त्रिवेणी मस्तिष्क से प्रस्फुटित होने लगती है और चैदह वर्ष की आयु तक यौन प्रोढ़ता द्वारा कामवासना/सेक्स की परिपक्तता उपलब्ध हो जाती है परन्तु कुछ लोग चैदह वर्ष की आयु में के होकर रह जाते है उनकी उम्र तो बढ़ती है किन्तु भावों की प्रगाढ़ता थम जाती है और ऐसे लोगों की यात्रा इन दो शरीर तक आकर थम जाती है।
इस सूक्ष्म शरीर में चौदहवें वर्ष से इक्कीसवे वर्ष तक की उम्र तक भाव का विकास अपने चरम पर होता है जिसमें तर्क, विचार और वृद्धि के विकास में प्रकृति सहायक बन अपना कार्य पूर्ण करती है। पहले शरीर और दूसरे शरीर के विकास में प्रकृति पूरी सहायता देती है, लेकिन दूसरे शरीर के विकास से मनुष्य मनुष्य नहीं बन पाता है और जो सात वर्ष पर रुक जाता है उसका पूरा जीवन खाने-पीने तक की यात्रा पर समाप्त हो जाता है, उनका जीवन जीभ के लिये, स्वाद के लिये होता है। इस दुनिया में पहले एवं दूसरे शरीर तक पहुॅचे लोग जीभ और योन पूर्ति के लिये जीते है,जिसे वे अपना सम्पूर्ण विकास समझते है और इसी के लिये आजीवन वे धन संचय-व्यय करते है, जैसे ही वे अपना सम्पूर्ण विकास समझते है। जब तक कोई समाज या कौम का जीवन तीसरे शरीर के विकास को प्राप्त नहीं होता तब तक उस समाज-कौम में वैचारिक क्रांति में घटित नहीं होती हैंै।
3. सूक्ष्म शरीर -सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म जगत का सम्बन्ध नाभि स्थित मणिपूरक चक्र से है । इसमें अग्नि तत्व है। सूक्ष्म शरीर तेज चमकते हुए पानी जैसा दिखाई देता है। इस के आर पार देखा जा सकता है। इस के लिए भक्ति योग होता है। इस शरीर के जरिये अपने पिछले जन्म में जा सकते है। यह आकाश और समय दोनों में यात्रा कर सकता है। पर ये यात्रा सिर्फ अतीत से वर्तमान तक की जा सकती है। पर भविष्य की यात्रा इस शरीर से नहीं की जा सकती। इस शरीर में अपने पिछले जन्म कि सभी इच्छाएँ और अभिलाषाएं होती है और उन्हें वापिस से याद कर के हमें तनाव महसूस होने लगता है। पर अपनी इच्छाओं से भागने की जगा अगर हम उन्हें स्वीकार कर ले तो हम उन इच्छाओं से मुक्ति पाकर अगले शरीर की तरफ बढ़ सकते है।
आध्यात्मिक जगत में इसे प्राणमय कोश भी कहा जाता है। यह शरीर अति सुक्ष्म अदृश्य ऊर्जा तरंगों से निर्मित है। हमारे शरीर में अरबों न्यूरो ट्रासमीटर्स का एक जाल बिछा हुआ है। जिनसे ये इलेक्ट्रिक तरंगे दौड़ती रहती है। यह शरीर मणिपुर चक्र से जुड़ा हुआ है। जो नाभि के केंद्र में स्थित होता है। इसी उर्जा की के प्रभाव से ही हमारे मन में तरह-तरह के संदेह और विचार उत्पन्न होते हैं। परन्तु जो मनुष्य इस उर्जा को इसके उच्चतम संभावना को विकसित कर लेता है। उसके अंदर श्रद्धा, विश्वास और संकल्प शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह व्यक्ति एक नियोजित विचार कर सकता है। एक समझदार व्यक्ति अपनी समझ और साधना के द्वारा इस तल पर आराम से पहुंच सकता है। हठयोग के द्वारा भी इस उर्जा को नियंत्रित किया जा सकता है।
4. मनस मनोमय शरीर (ज्ीम डमदजंस ठवकल) मनोमय शरीर और मनोमय जगत का शरीर का सीधा संबंध हृदय से है जहाॅ अनाहत चक्र होता है और इसका वायु तत्व से सम्बन्ध है। इस शरीर की संभावनायें अनंत है जिसमें व्यक्ति सम्मोहन को सहज ही प्राप्त कर लेता है तथा किसी भी तरह की पुस्तक को अपने हाथों से छूकर तरंगों द्वारा उस पूरी पुस्तक का एक पन्ना भी देखे बिना उसके किस पृष्ठ पर क्या अंकित है, अक्षरतयाः स्मरण हो जाता है व बिना समय और स्थान की बाधा के दूसरे से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस स्थिति का व्यक्ति बिना एक भी शब्द बोले दूसरे के मन में चल रहे विचारों को पढ़ सकता है और अपने विचारों को दूसरे तक पहुॅचा सकता है। बिना किसी को कुछ कहे या समझाये कोई विचार, कोई बात दूसरे के शरीर में प्रवेश करा सकता है और उसका बीज बना सकता है। हाल ही में एक फिल्म ’’कोई मिल गया’’ में निर्माता ने बाहरी दुनिया से आये एलियन के पृथ्वी पर उतरने के पश्चात एक मंद बुद्धि रहे युवक के सिर पर हाथ रखकर उसकी अल्पबुद्धिता को समाप्त कर उसके अन्दर उम्र के अनुसार विकास आदि का प्रयोग एक चमत्कार के रूप में प्रदर्शित किया है।
इस मनोमय शरीर की दशा को उपलब्ध हुआ व्यक्ति शरीर को एक स्थान पर विश्राम देकर स्वयं शरीर के बाहर यात्रा कर सकता है , अपने इस शरीर से अपने को अलग जान सकता है। ऐसे प्रयोग भी पांच दशक पूर्व ’’शिर्डी के साईबाबा’’फिल्म में दर्शाया इस विद्या जिसे राजयोग भी कहा है, राजयोग विधि का प्रदर्शन किया गया है। इस शरीर के भी आरपार देखा जा सकता है। ये अतीत और भविष्य दोनों में यात्रा कर सकता है। इस तल तक बहुत कम मनुष्य ही पहुंच पाते हैं तथा इसी उर्जा के प्रभाव से हमारे भीतर स्वप्न शक्ति और कल्पना शक्ति उत्पन्न होती है।
इसी ऊर्जा के प्रभाव से हम हमेशा स्वप्न और कल्पनाओं में खोए रहते है। परन्तु यह कल्पना शक्ति प्राकृतिक रूप यह अस्पष्ट और अनियंत्रित होती है। इसलिए हम केवल कल्पनाओं में भटकते रहते हैं। परन्तु जो मनुष्य संयम,समझ अथवा साधना के द्वारा इस उर्जा को उसके अधिकतम संभावनाओं तक विकसित कर लेते हैं। उनके अंदर स्पष्ट कल्पनाशीलता और अद्भुत सृजनात्मकता उत्पन्न हो जाती है। इस संसार में जितने भी महान वैज्ञानिक, चित्रकार, गीतकार अथवा आविष्कारक हुए हैं। वे इसी उर्जा के विकास के कारण हुए हैं। स्वामी विवेकानंद, अल्बर्ट आइंस्टीन, लिओनार्दो दा विंची और निकोला टेस्ला इत्यादि इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। हठयोग अथवा अन्य युक्तियों द्वारा इस उर्जा को इसके उच्चतम संभावना तक विकसित करके कई अद्भुत चमत्कारिक सिद्धियां भी हासिल की जा सकती है। इस शरीर में यात्रा बाहर से अंदर की तरफ नहीं बल्कि नीचे से ऊपर की और आज्ञा चक्र की तरफ होती है। इस शरीर को पार करने के लिए आज्ञा चक्र या अपनी तीसरी आंख के स्थान पर ध्यान लगाना होता है। इसे और भी कई विद्याओं द्वारा किया जा सकता है। इस शरीर की यात्रा पीछे बताये तीन शरीरों को पार करने के बाद करनी चाहिए नहीं तो कई मानसिक रोग हो सकते है। इस विधि में अपने मन को साध लेने के बाद कोई भी कल्पना सोच समझकर करनी चाहिए क्योंकि वह तभी पूरी हो जाती है। इसमें हम अपनी मानसिक कल्पना से कुछ भी निर्मित कर सकते है। किसी भी कल्पना को सच होने से रोकने के लिए इनके प्रति साक्षी और जागरूक रहना होता है। मन में बहुत से विचार चलते रहते है। इन विचारों और मन के प्रति साक्षी और जागरूक होने से मन की बेहोशी दूर होती है। ऐसा करने से हम अपने अगले शरीर की यात्रा कर सकते है।
5. आत्मिक शरीर (ज्ीम ैचपतपजनंस ठवकल) पांचवां शरीर और पांचवां लोक है-आत्मलोक। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व से होता है। यह शरीर हमारे विशुद्ध चक्र से जुड़ा होता है। जो हमारे गले के कंठ में स्थित है। इस तल पर पहुंचते ही मनुष्य के अन्दर सभी प्रकार के दैत और अहंकार मिट जाते हैं। और उसे अपने आत्मस्वरुप का बोध होता है अर्थात वह आत्म ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। इस शरीर में अब वह मनुष्य नहीं रह जाता बल्कि देव स्वरूप हो जाता है। परम आनंद इस शरीर की प्रकृति है। इसलिए इस शरीर में सारे दुख-दर्द समाप्त हो जाते हैं और वह केवल आनंद ही आनंद अनुभव करता है। इसी परम आनंद उस महापुरुष को वर्षों मगन रहता है। यह भौतिक शरीर का आखिरी बिंदु है। यहां तक पंचतत्वों की सीमा समाप्त हो जाती है। इसलिए तल पर मनुष्य जीवन चक्र से बाहर निकल जाता है। अर्थात इसके पश्चात वह पुनः मनुष्य के रूप में संसार में जन्म नहीं लेता। हालांकि वह खुद चाहे तो अपनी मर्जी से संसार में वापस आ सकता है। इस तल तक पहुंचना सामान्य मनुष्य के लिए बहुत कठिन है। कई वर्षों के निरंतर अभ्यास और साधना के बाद भी संसार में कुछ गिने-चुने लोग ही इस शरीर को उपलब्ध हो पाते हैं। ये शरीर समय को पार कर जाता है और इस शरीर की चेतना सामूहिक हो जाती है।
पांचवे शरीर तक स्त्री-पुरुष की मान्यता रहती है और उन्हीं मान्यताओं के कारण विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती रहती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव चला जाता है। तो मात्र. एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री और पुरूष का आकर्षण विकर्षण समाप्त हो जाता हैं सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तःस्थिति लिंग भेद से ऊॅपर उठी होती है यद्यपि ज्ञानेन्द्रिय के चिन्ह शरीर में अपने स्थान पर यथावत बने रहते है।
6/ ब्रह्म शरीर- यह शरीर हमारे आज्ञा चक्र से जुड़ा हुआ है। इस स्तर तक आते ही मनुष्य ब्रह्म ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। अब वह कह सकता है, अहमं ब्रह्मस्मि यानी मैं ही ईश्वर हूं। उसके पास समस्त ईश्वरीय शक्तियां आ जाती है। अब वह चाहे तो अपनी ईच्छा अनुसार नई सृष्टि की रचना कर सकता है। असिमित शक्तियों की चाह रखने वाले हठयोगी हठयोग एवं अन्य साधनाओं द्वारा इस स्तर तक पहुंच सकते हैं। परन्तु अभी भी वह अपने अस्तित्व से जुड़ा होता है इसलिए उनकी यात्रा अभी पूरी नहीं होती। इस दिव्य ऊर्जा के प्रभाव से कघ्ई रोगी और ब्रह्मज्ञानी बरसों तक इसी शरीर तक अटके रह जाते हैं।
छठा शरीर ब्रह्म शरीर है और छठा जगत ब्रह्म जगत है जहां पहुंचकर सारे तत्व और पदार्थों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस शरीर और इस लोक का सम्बन्ध है आज्ञा चक्र से। यह चक्र दोनों भौंह के मध्य है और इसी का तीसरा नेत्र भी कहते हैं। इस शरीर में हम और ब्रह्मांड एक हो जाते है। यहाँ पर किसी तरह का कोई विभाजन नहीं होता। यहाँ पर अपने अंदर ब्रह्मांडीय विस्तार महसूस होता है। यहाँ पर कोई केंद्र नहीं रहता। इस शरीर का आकार निराकार होता है। यहाँ पर कोई विधि सहायक नहीं होती। ये शरीर ब्रह्मांड में विलीन हो चुका होता है। यहाँ पर सपने देखने वाला नहीं होता पर सपने होते है। ज्ञान देने वाला नहीं होता पर ज्ञान होता है। सपने और ज्ञान ब्रह्मांड में तैरता रहता है और अपने आप ही जान लिया जाता है। जो मन और शरीर विलीन हो चूका होता है वह अब भी होता है पर ये निजी नहीं होता ब्रह्मांडीय होता है। या ऐसा कह सकते है यहाँ व्यक्ति नहीं होता सिर्फ ब्रह्म होता है। यहाँ पर सब कुछ सचेत होता है। इस शरीर में निजता और फैलाओ के बीच तनाव होता है। सीमा और असीमता के बीच का तनाव होता है। ब्रह्म शरीर से अगले शरीर तक हम अकारण ही पहुँच जाते है। इस के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती।
छठे शरीर में विकसित देवात्मायें इस स्थिति से ऊॅपर उठ जाती है उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये स्थिरप्रज्ञ ज्ञानी की तरह और उपनिषदों में वर्णित तत्वदर्शी जैसे बन जाती है। छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते है और उनके आत्मसुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता है। लोकाचार के लिये उपयुक्त लीला प्रदर्शन भर के लिये उसका व्यवहार चलता रहता है।
7/ निर्वाण शरीर सातवां शरीर है निर्वाण शरीर और सातवां लोक है निर्वाण जगत। इसका स्थान है सहस्रार स्थित ब्रह्मरंध्र।इसीमें एक विशेष प्रकार का द्रव विद्यमान जिसका आधुनिक विज्ञान आजतक पता नहीं लगा सका है। यहीं पर परम तत्व शिव के स्वरूप में विद्यमान है। ये शरीर पूरी तरह शून्य है। यहाँ पर पूरी तरह से अनस्तित्व या खालीपन होता है। इस शरीर तक पहुँचे की घटना बिना कारण ही घटित हो जाती है। इस शरीर का कोई आकार नहीं होता। ना कोई सपने होते है और ना कोई रूप होता है। यहाँ पर अनंत मौन होता है। यहाँ पर मन भी शून्य होता है। ऐसा मन जिसकी कोई अभिलाषा नहीं। मुक्ति की अभिलाषा भी नहीं। ये मन किसी की खोज भी ना कर रहा हो। सत्य की भी नहीं। ये मन बस होता है। जब ये होने का भाव ही रह जाता है तो ये घटना घट जाती है। जो कहते है “मैं जनता हूँ, मैं पहुँच गया हूँ” वह ब्रह्म शरीर तक ही रुके रहते है। पर जो कहते है में कुछ नहीं जनता और कोई नहीं जानता वह निर्वाण शरीर प्राप्त करते है। इस शरीर में तनाव अस्तित्व और अनस्तित्व में बीच होता है। यहाँ पर व्यक्ति अपने मूल स्रोत पर आ जाता है जो अनंत और अंतहीन है।
सातवें शरीर वाले भगवान संज्ञा से विभूति होते है जिन्हें अवतारी भी कह सकते है इन्हीं के लिये ब्रह्मात्मा, ब्रह्म-पुरुष शब्द प्रयुक्त हुए और ये ही ब्रह्म साक्षात्कार-ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होते है। सातवें शरीर को उपलब्ध मनुष्य के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता है। उनके लिये पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं, दोष, अपराधों को वे बालबुद्धी मानते है और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बातें ही उनका चिन्तन,मनन एवं कार्यान्वयन होता है।
सातवा ब्रह्म शरीर है। उसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। सभी वे शरीर झड जाते है जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार में चलता है वे उससे प्रभावित होते है और प्रभावित करते है। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। अस्तु उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएं बनती है। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकांक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते है और जब ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि संतुलन के लिये भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक को वापस लौट जाते है। ऐसे अवतार समय समय पर होते रहते है। ऐसे स्तर पर पहुंचने की स्थिति ’अहम ब्रम्होसि’’ सच्चिदानन्द हम, शिवोहम, सोहन कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुंचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कौंधाने के लिये इन वेदान्त मंत्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन मनन किया जाता है।
