नई दिल्ली। दीपों का पर्व दिवाली आते ही हर ओर रोशनी, उल्लास और आतिशबाजी से आसमान जगमगा उठता है। लोग दीप जलाकर, मिठाइयां बांटकर और पटाखे फोड़कर खुशियां मनाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब भगवान श्रीराम 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब न तो बारूद था, न ही पटाखे! उस समय सिर्फ दीपों से नगर को सजाया गया था। तो आखिर आतिशबाजी की शुरुआत कहां से और कब हुई? आइए जानते हैं दिवाली और पटाखों का असली इतिहास।
राम के समय नहीं थी आतिशबाजी, दीयों से जगमगाई थी अयोध्या
इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि भगवान राम के अयोध्या लौटने पर आतिशबाजी हुई थी।
रामायण काल में बारूद या पटाखों जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं था।
अयोध्यावासियों ने भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण के स्वागत में तेल के दीयों की अनगिनत कतारें जलाकर नगर को आलोकित किया था।
वहीं से ‘दीपों की पंक्ति’ यानी दीपावली शब्द की उत्पत्ति हुई जो आज प्रकाश की विजय और सत्य की जीत का प्रतीक है।
चीन में हुई थी पटाखों की खोज
इतिहासकारों के अनुसार पटाखों का आविष्कार आठवीं सदी (लगभग 800 ईस्वी) में चीन में हुआ था।
चीन में बांस की नलियों में बारूद भरकर उन्हें जलाया जाता था, जिससे तेज धमाके की आवाज आती थी।
यह माना जाता था कि यह आवाज बुरी आत्माओं और नकारात्मक शक्तियों को भगाती है।
वहीं से आतिशबाजी की परंपरा दूसरे देशों तक पहुंची।
भारत में मुगल काल में शुरू हुई आतिशबाजी की परंपरा
भारत में पटाखे मुगल काल में आए।
उस दौर में शाही दावतों, युद्ध विजय समारोहों और त्योहारों में रंगीन बारूद का प्रयोग किया जाता था।
धीरे-धीरे यह परंपरा आम जनता तक पहुंची और दीपावली के उत्सव का हिस्सा बन गई।
मुगल शासक आतिशबाजी को शक्ति और समृद्धि का प्रतीक मानते थे।
ब्रिटिश काल में शुरू हुआ पटाखा उद्योग
भारत में पटाखों का व्यावसायिक उत्पादन 19वीं सदी के अंत में शुरू हुआ।
तमिलनाडु का शिवकाशी शहर धीरे-धीरे देश का सबसे बड़ा पटाखा निर्माण केंद्र बन गया।
आज भी भारत में बनने वाले ज्यादातर पटाखे शिवकाशी में ही तैयार होते हैं।
क्यों फोड़े जाते हैं पटाखे?
खुशी और विजय का प्रतीक: आतिशबाजी को अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक माना गया।
नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति: मान्यता है कि तेज आवाज बुरी शक्तियों को दूर करती है।
सामूहिक उत्सव का भाव: एक साथ आतिशबाजी करने से परिवार और समाज में उत्साह और एकता बढ़ती है।
अब बढ़ रही है पर्यावरणीय सजगता
बीते कुछ वर्षों में लोग आतिशबाजी से होने वाले प्रदूषण को लेकर अधिक जागरूक हुए हैं।
कई शहरों में अब ग्रीन क्रैकर्स (पर्यावरण अनुकूल पटाखे) को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि त्योहार की खुशी के साथ प्रकृति की रक्षा भी हो सके।
जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे, तब केवल दीप जलाए गए थे पटाखों का कोई नामोनिशान नहीं था।
आतिशबाजी की शुरुआत चीन से हुई, भारत में यह मुगल काल में आई और आज यह खुशी, विजय और एकता का प्रतीक बन चुकी है। सच्ची दिवाली वही है, जिसमें प्रकाश तो हो पर प्रदूषण नहीं।
