— संजीव दे रॉय ‘चेदीराज दास’
नगर की भीड़ में, राजनीति की शोर-शराबे में, और रोज़मर्रा की जद्दोजहद में हम सबने एक चीज़ को लगभग भूला दिया है—
सही रास्ता कौन-सा है और उसे दिखाएगा कौन?
पुराने ग्रंथ धीरे से कान में कहते हैं—
“तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।”
अर्थात— “जब मनुष्य सच को जानने की सच्ची इच्छा रखे, तभी वह गुरु की शरण में जाए।” पर शहर की हवा बदली है।
यहाँ आजकल गुरु का मतलब— किसी आयोजन की फ़ोटो, किसी आशीर्वाद का पोस्टर या किसी कार्यक्रम की कुर्सी पर बैठा फोटो-अप— इतना ही रह गया है।
गुरु की तलाश अब दिखावे की दौड़ बन चुकी है
सच्ची जिज्ञासा कम और सोशल मीडिया की सजावट ज्यादा दिखाई देती है। लोग आध्यात्मिकता को भी अपने व्यक्तित्व का “ब्रांड” बनाने लगे हैं। कई लोग गुरु इसलिए खोजते हैं कि “लोग क्या कहेंगे?” या
“समाज में प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी।” लेकिन शास्त्र यह बिल्कुल नहीं कहते वे साफ़ चेतावनी देते हैं—
यदि आप गुरु के वचन का पालन ही नहीं कर सकेंगे,
तो गुरु स्वीकार करना पाप नहीं तो कम से कम ढोंग अवश्य है।
गुरु को अपनाना शादी, नौकरी या मेडल नहीं है
यह जीवन बदलने की घोषणा है यह कहने जैसा है—
“मैं अब अंधेरे में भटकने से थक गया हूँ। कृपया मुझे रास्ता दिखाइए।” पर रास्ता दिखाने के बाद चलना तो शिष्य को ही पड़ता है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं—
यदि आदेश मानने की नीयत नहीं,
तो गुरु मत लो।
यह आध्यात्मिकता की नहीं, कर्मकांड की शुरुआत है।
सच्चा गुरु वही, जो जीवन में उतरे—दिल और चरित्र में
गुरु वह नहीं जो मंच पर बैठा हो, बल्कि वह है जिसके वचन दिल में गूंजते हों, जिसकी सीख जीवन को टोकती हो और जिसका देखा-सुना व्यक्ति को बदलने लगे। गुरु के सामने सबसे पहले ज़रूरी है—
जिज्ञासा।
वही आग, वही सवाल— “मैं कौन हूँ?” “भगवान कौन हैं?” “मेरी राह क्या है?” इस शहर में, जहाँ लोग रोशनी के बीच भी अंधेरा ढोते फिरते हैं, ऐसी जिज्ञासा ही असली सूरज है।
शहरनामा का निष्कर्ष
गुरु को अपनाना
दिखावे के लिए नहीं, भीड़ में अलग दिखने के लिए नहीं, नाम कमाने के लिए नहीं, और न ही पाप धोने के शॉर्टकट के लिए।
गुरु को अपनाना है—
सच में बदलने के लिए। चलना सीखने के लिए।
अंधेरे को पहचानने और उजाले को पकड़ने के लिए और शहर के कोलाहल में, यह संदेश बेहद आवश्यक है— कि गुरु चुनते समय नहीं, अपने मन को चुनते समय सावधान रहें। क्योंकि गुरु तो मार्ग दिखाएगा पर यात्रा आपको ही करनी होगी।
शहरनामा यहीं से कहता है —
इस शहर में बहुत सड़कें हैं, बहुत दिशाएँ हैं पर एक ही रास्ता मोक्ष की ओर जाता है। उसे पहचानने के लिए गुरु चाहिए— और गुरु को पहचानने के लिए
सच्चा तलाशने वाला हृदय।
हरे कृष्ण
भक्त चेदीराज दास..
