डॉ. मयंक चतुर्वेदी व्यूरो चीफ हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी
मध्य प्रदेश के निवाड़ी जिले में घटित एक घटना ने समाज के हर संवेदनशील इंसान को झकझोर दिया है। 14 साल का साहिल यादव, जो अल्फोंसा मिशनरी हाई स्कूल, पृथ्वीपुर में कक्षा 10 का छात्र था, केवल एक छोटी गलती के कारण अपने जीवन का मूल्य चुकाने को मजबूर हो गया। दीपावली के समय, बच्चों की तरह, साहिल ने मजाक में एक छोटा सा पटाखा फोड़ दिया। इस मासूम हरकत के लिए उसे स्कूल द्वारा 15 दिन के लिए निलंबित कर दिया गया।
साहिल ने अपनी गलती मान ली थी और उसके पिता रामकुमार यादव स्कूल जाकर माफी भी मांग चुके थे। उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की कि उनका बेटा 10वीं बोर्ड परीक्षा दे रहा है, उसे माफ कर दिया जाए। लेकिन स्कूल के चर्च मिशनरी फादर ने न सिर्फ उनकी विनती को नजरअंदाज किया, बल्कि साहिल को मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना दबाव में डाल दिया कि वह खुद को संभाल नहीं पाया।
रामकुमार यादव बताते हैं, “हमने बहुत हाथ जोड़े, कहा कि गलती हो गई है, आगे ऐसा नहीं होगा। लेकिन उन्होंने बेटे को 15 दिन के लिए निकाल दिया। बेटे का चेहरा उतर गया था, वह गुमसुम रहने लगा। उसी रात वह खेत गया और वापस नहीं लौटा। बाद में गांव के बाहर एक पेड़ पर उसका शव लटका मिला।” पुलिस जांच में पाया गया कि फादर रॉबिन ने छात्र को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया, जिसके कारण साहिल ने आत्महत्या का कदम उठाया।
साहिल अब हमारे बीच नहीं है। उसके जाने का सदमा परिवार, गाँव और पूरे समाज में गहरा है। पिता की आँखों में आज भी वही सवाल जिंदा है: “अगर स्कूल ने बेटे की गलती को माफ कर दिया होता, तो क्या वह आज जिंदा होता?” यह सिर्फ एक छात्र का व्यक्तिगत दुख नहीं है, बल्कि यह हमें शिक्षा और समाज की संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्न पूछने के लिए मजबूर करता है।
क्या अनुशासन के नाम पर हम बच्चों की भावनाओं और मानसिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज कर सकते हैं? क्या बोर्ड परीक्षा में लगे एक किशोर को इतनी भारी सजा देना न्यायसंगत है कि वह शर्म और दबाव के कारण अपने जीवन का अंत कर ले?
शिक्षा केवल किताबें पढ़ाने या नियम सिखाने तक सीमित नहीं हो सकती। यह बच्चों को सुरक्षित, समझदार और आत्मनिर्भर बनाने का माध्यम भी होनी चाहिए। साहिल की मौत ने हमें याद दिलाया कि शिक्षा में संवेदनशीलता और सहानुभूति कितनी जरूरी है। अनुशासन जरूरी है, लेकिन बच्चों के सम्मान और भावनात्मक सुरक्षा से बड़ा कोई नियम नहीं होना चाहिए।
बाल मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किशोरावस्था में अपमान, निलंबन और कठोर सजा गहरे मानसिक प्रभाव छोड़ते हैं। साहिल का मामला इसका सबसे दुखद उदाहरण है। केवल गलती मान लेने और माफी मांगने के बावजूद, यदि एक बच्चे को इतना अपमानित और अकेला महसूस कराया जाए कि वह अपनी जान लेने पर मजबूर हो, तो यह शिक्षा का नाम लेने लायक नहीं रह जाता।
साहिल की मौत ने समाज और विद्यार्थियों को झकझोर दिया। उनके साथ पढ़ने वाले साथी, गाँव और पूरे समुदाय ने इस घटना को लेकर गहरा आक्रोश जताया। यह एक चेतावनी है कि शिक्षा केवल अंक और नियम का नाम नहीं, बच्चों के जीवन, सम्मान और भावनाओं की सुरक्षा भी है।अनुशासन का मतलब डर या अपमान नहीं हो सकता है। अनुशासन जरूरी है, लेकिन जीवन से बड़ा कोई नियम नहीं।
अंत में यही कि साहिल यादव की छोटी सी गलती ने उसे जीवन और मृत्यु के बीच की दूरी दिखा दी। पिता और परिवार सदमे में हैं। अब प्रशासन, पुलिस और मानव अधिकार आयोग की जिम्मेदारी है कि वे सुनिश्चित करें कि भविष्य में किसी अन्य बच्चे की जान अनुशासन सिखाने के नाम पर खतरे में न पड़े।
दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के स्कूलों में विशेषकर मिशनरी चर्च से संचालित स्कूलों में बार बार ऐसे मामले सामने आ रहे हैं, जहां कभी कलावा, टीका, माला के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है तो कभी इस तरह के मामलों में, सोचनेवाली बात है कि पटाखा दीपावली पर नहीं तो कब चलाया जाएगा। इसके बाद भी यदि बच्चे ने अपनी गलती मान ली थी तो फिर से 15 दिन के स्कूल निष्कासन की सजा क्यों दी गई? अब मिशनरी स्कूलों की मनमानी रुकनी चाहिए, ताकि आगे अन्य कोई साहिल आत्महत्या के लिए मजबूर न हो।
