आत्माराम यादव पीव चीफ एडिटर हिन्द संतरी
भारत में वर्ष 2019 की गणना के अनुसार 30.7 करोड़ से अधिक गायें हैं जो 2025 तक लगभग 310 मिलियन तक पहुंचने की सम्भावना है, इस सम्बन्ध में हाल ही में केन्द्रीय पशुपालन एवं डेयरी राज्य मंत्री प्रो. एस.पी. सिंह बघेल ने लोकसभा में बताया कि बेसिक एनिमल हजबेंड्री स्टैटिस्टिक्स 2024 के अनुसार वर्ष 2023-24 में देश का कुल दूध उत्पादन 239.30 मिलियन टन रहा। राज्यवार आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश दूध उत्पादन में सबसे आगे है, जहाँ गाय से 13,106.39 हजार टन और भैंस से 24,351.54 हजार टन दूध प्राप्त हुआ। इसके बाद राजस्थान का स्थान है, जहाँ गाय से 14,806.90 हजार टन और भैंस से 16,789.55 हजार टन दूध उत्पादन हुआ। मध्य प्रदेश 2023-24 में दूध का उत्पादन 213.26 लाख टन था, और यह भारत में दूध उत्पादन में तीसरे स्थान पर है. प्रदेश में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 652 ग्राम प्रति दिन रही, जबकि राष्ट्रीय औसत 459 ग्राम प्रति दिन था. गुजरात, और महाराष्ट्र भी देश के प्रमुख दुग्ध उत्पादक राज्यों में शामिल हैं वही भैंस के दूध का उत्पादन में हरियाणा से (9,228.60 हजार टन) और पंजाब (7,824.43 हजार टन) प्राप्त हुआ, स्प्ष्ट है यह सरकारी आंकड़े सही विश्वसनीय नहीं है, यदि यह होते तो निश्चित ही देश में उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे प्रान्तों में रासायनिक पदार्थों से नकली दूध, घी, पनीर के नकली उत्पादों के सैकड़ों कारखाने नही होते, जो प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण लोगों के जीवन से खिलवाड़ नहीं करते । ये रासायनिक जहरीला दूध-दही, घी, मक्खन, पनीर का उत्पादन देश की आबादी के हिसाब से गौ पालन, गौ रक्षा और गौ संवर्धन की कमी को व्यक्त करता है जो धरती को जहरीला बनाकर प्रकृति के सुरक्षा चक्र को असंतुलित कर चुका है।
आजादी के समय देश की अर्थव्यवस्था, आरोग्य, अध्यात्म, ऊर्जा, सौंदर्य और पर्यावरण की आधारशिला गौमाता के महत्व को महिमामंडित करती थी। तत्कालीन सरकारों ने गौ पालन, गौ रक्षा और गौ संवर्धन से इन व्यवस्थाओं को साधने के साथ अन्य विकासोन्मुख योजनाओं को जारी रखा। दुर्भाग्यवश यह बात हम समझे, उससे पहले अंग्रेज समझ गए और उन्होंने इसके बलबूते ही भारतीय समृद्धि की जड़े हिला कर रख दी। रमेशचंद्र दत्त ने “द इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया” पुस्तक में लिखा है कि सन 1857 से 1900 के मध्य में कुल 16,67,02,42,840/-रु. की कीमत का गाय का चमड़ा यूरोप-अमेरिका के देशों में निकास किया गया था। उस जमाने में एक गाय की कीमत दो रुपये और बैल की कीमत 3 रुपये से 4 रुपये तक थी यदि हिसाब करे तो इस समय अंग्रेजों ने करोड़ों गाय-बैल-बछड़ों का कत्ल किया होगा। यह समझा जा सकता है उसके बाद बचे हुए गोवंश हमारी संजीवनी है यह हम भूल चुके है जिसे समझना है। अंग्रेजों के आने के बाद हमारे देश में दो प्रकार की अर्थव्यवस्था बन गई थी,एक देसी, एक विदेशी, एक रक्षक, एक भक्षक उसका परिणाम यह हुआ की उद्योग प्रधान देशों में प्रत्येक पशु के लिए दस से बारह एकड़ जमीन चरने हेतु होती है। जबकि कृषिप्रधान भारत में एक एकड़ जमीन में दस से बारह पशु चरते थे। गोवंश आधारित व्यवस्था देशी और रक्षक है। गोवंश का कत्ल करके उसका मांस, चमड़ा विदेशों में भेज कर तथा हड्डियों और खून से दवाइयाँ बनाकर हमने अनेक उद्योग विकसित किए हैं।
भगवान श्रीकृष्ण इसके उदाहरण है जिन्होंने गाय के दूध, गौमूत्र और गोबर सहित पञ्चगव्य को यज्ञ-पूजा आराधना आदि में महत्व दिया,परिणामस्वरूप जितनी श्रद्धा भगवान के प्रति थी उतनी ही गाय के प्रति थी और तब के बाद देश के हर गाँव ,मोहल्ले,नगर के हर घर में दूध देने वाली गायों और शक्तिशाली बैलों का पालन होता है। इस व्यवस्था में बीमार, अपंग, वृद्ध तथा अनाथ गौवंश की सेवा के लिए प्रत्येक गाँव में गौशाला हुआ करती थीं। समाज के सेवा भाव के कारण गौशालाओं का निर्वाह भी अच्छी तरह से हो जाया करता था। वक्त पड़ने पर लोग गौशाला में दान भी करते थे। गाँव के पास गोचर ज़मीनें रहती थीं, जिससे पशुओं को उचित प्रमाण में चारा भी मिल जाता था। इस प्रकार कई वर्षों तक गौवंश एवं गौशालाएँ भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग रही हैं कृषि के साथ गौ-पालन भी लंबे समय तक भारत में महत्वपूर्ण व्यवसाय रहा है जिसपर देश ही नहीं अपितु प्रदेश की सरकारे भी कदमताल कर रही है। भारत की डेयरी अर्थव्यवस्था में गाय और भैंस दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सरकार का लक्ष्य है कि आधुनिक डेयरी तकनीकों, पशु स्वास्थ्य सेवाओं और चारे की गुणवत्ता में सुधार के जरिए आने वाले वर्षों में दूध उत्पादन को और बढ़ाया जाए, ताकि देश दुग्ध उत्पादन में अपनी वैश्विक अग्रणी स्थिति को बनाए रख सके।
एक दुर्भाग्यशाली पहलु यह भी है कि इस देश में कुल 1,707 बूचड़खाने वैध रूप से पंजीकृत हैं जबकि मोटे अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 30,000 से अधिक है, जहा प्रतिदिन 20-30 हजार गाय,बैल, भैस आदि का क़त्ल किया जाता है। ये सभी कत्लखाने हिन्दू समाज के धनिक पूंजीपतियो के है, अपबाद में पच्चीस-पचास बुचडखाने मुस्लिम वर्ग के लोगों के हो सकते है, किन्तु इन सभी जगह गाय-बैल, भैस आदि को क़त्ल करने में अधिकांश मुस्लिमवर्ग इससे रोजगार पाए हुए है। मध्य प्रदेश में मध्य प्रदेश में गाय या भैंस (गोवंश) का वध अवैध है। 2004 में पारित मध्य प्रदेश गोवंश वध प्रतिषेध अध्यादेश के अनुसार, गायों और उनके गोवंश (बैल, सांड आदि) का वध करना, गोमांस रखना और उसका परिवहन करना अपराध है। इसलिए, राज्य में कोई भी वैध गाय या भैंस का कत्लखाना नहीं होने का दावा प्रदेश सरकार करती है किन्तु बाबजूद मध्यप्रदेश में 262, और महाराष्ट्र 249 में सबसे अधिक पंजीकृत बूचड़खाने हैं भारत की डेयरी अर्थव्यवस्था में गाय और भैंस दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। मध्यप्रदेश में एक करोड़ 96 लाख २ हजार 366 गौवंश, 81 लाख 87 हजार 989 भैसवंश, 3 लाख 9 हजार भेड़ें और 90 लाख 13 हजार 687 बकरे बकरिया है, कुल दूध देने वाला पशुधन 4,06,95,544 है जो देश में दूध दही की नदियाँ बहने की कहावत से कोसो दूर है और इनके रहते प्रकृति का चक्र असंतुलित हो गया है, इन बेजुबान लाखों पशुओं के गले पर कत्लखाने में खून के बहने वाले फौब्बरे और तकलीफ से प्राण निकलने के कारण इनकी अकथनीय पीड़ा वेदना के सागर में सुनामी लाने में सक्षम है जिससे धरती पर उथल पुथल, आपदाए आ रही है और इन्सान इनसे सबक भी नहीं ले रहा है,यह सभी के लिए गंभीर चिंतन का विषय होकर अब तक किये गए पापाचार के प्रायश्चितस्वरूप पशु-जीव हत्या से पूर्ण मुक्ति के साथ इन गायों की सेवा, रक्षा और संवर्धन से ही इस असंतुलित चक्र को संतुलित किया जा सकेगा।
पिछले कुछ वर्षों में जीवनशैली में तीव्र गति से बड़े परिवर्तन आए हैं। अनेक कारणों से गौ पालन के विषय में साधनों एवं व्यवस्था में कटौती होती चली गयी लोग घर में गायों को पालते नहीं है तथा गौशालाओं के आस-पास रास्तों पर भटकते पशुओं को आश्रय देने के उचित व्यवस्था नहीं है। छत, भंडार, खुराक पानी, कर्मचारी आवास, कर्मचारियों के वेतन, बिजली जैसे अनेकों खर्च गौशालाओं की कमर तोड़ रहे हैं, गाँवों में चरनोई भूमि राजनीति बंदरबांट में चली जाने से गाँवों में भी गाये निराश्रित हो गई, जरूरत है शहर के साथ साथ गाँवों में छोटी-छोटी गौशालाओं की स्थापना हो, स्थानीय स्तरों पर उसे आर्थिक सहायता प्राप्त हो और वे स्वावलंबी बनें ऐसे प्रयत्नों का होना आज बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है। गौशाला सुंदर, सुघड़ एवं व्यवस्था पूर्ण हो और गौशाला में गौ माता को संपूर्ण आहार, शुद्ध जल, बीमार में इलाज की व्यवस्था, छाँव-पेड़ की सुविधा, वर्षा से सुरक्षा आदि मिले इसके अलावा गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए गोबर-गोमूत्र से जैविक खाद, दवाइयाँ तथा पंचगव्य से औषधि, साबुन, सौंदर्यप्रसाधन जैसी वस्तुओं का निर्माण हो साथ ही ऐसी संस्थाओं के पास चारा (हरी घास) उगाने हेतु ज़मीन होनी चाहिए। आजकल चार फसल लेने के लालच में किसान जमीन को रासायनिक खाद का प्रयोग कर भूमि की उत्पादन क्षमता को कम कर चुका है और फसल के बाद जो नरवाई पशुओं के लिए उत्तम चारा बन सकती है उसमें आग लगाकर धरती के मित्र जीव जन्तुओ को भी मिटा चूका है। या तो चारे की जमीन को अथवा उद्योगों को बेचकर आमदनी बढ़ाने के गोरखधंधे बड़ी मात्रा में प्रारंभ हो चुके है। इसका परिणाम मूक पशुओं को भुगतना पड़ रहा है अतः गौशाला जैसी संस्थाओं और उसके संचालकों को सर्वप्रथम पशुओं की सुरक्षा व स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिए।
गौपालन, गोरक्षा और गौसंरक्षण के लिए सभी को अपनी सामूहिक जिम्मेदारी को समझना होगा तथा जिन मूक प्राणियों को सँभालने की ज़िम्मेदारी सरकार की समझी जा रही है उसके साथ- साथ हर नागरिक इसके लिए जिम्मेदारी से खुद को मुक्त नहीं रख सकता है। नागरिकों की ख़ामोशी और किसानों के लालच और पशुपालको की लापरवाही के कारण गाय बैल आदि चारे अथवा इलाज के अभाव में दुःख पहुँचे और गली गली मोहल्ले मोहल्ले लोगों के घरों की पोलीथिन में फैकी जूठन और सड़ी गली सब्जी को पोलिथिन के साथ खाने से उनकी मृत्यु हो जाए तो हम भी इस पाप के भागीदार बन जाते हैं तथा पशुओं के लिए समाज विश्वासघाती हो जाता है जो इन गौमाता के दूध का कर्ज चुकाए इनकी मौत के लिए जिम्मेदार है। देश की सरकारें गौशाला हेतु जो संस्था या ट्रस्टो की सेवाए लेकर काम कर रही है सरकार को चाहिए की वे इसके लिए क्षेत्रीय समितियों का गठन कर इन पर निगरानी रख मिलने वाले प्रति पशु चारे की राशि और उपलब्ध चारा और परोसा चारे का भी ध्यान रखे और गाय के विशेषज्ञ व गऊ प्रेमियों को ही ट्रस्टी या वेतनदार के रूप में नियुक्त करे, जो केवल व्यवसाय के लिए या अपनी राजनीति या दुकान चलाने के लिए यह सब कर रहे है उन्हें पहली फुर्सत में हटा दे। गौशाला से गाय कितना चारा अपने पेट में उतारती है उससे कई गुना वे गोबर,मूत्र,दूध के रूप में लौटा देती है अतएवं
गौशालाए संस्थापक या संचालक गण गायों को भूखा मारकर बुचडखाने के दलालों से गायों की कीमत लगाने के बारे में कभी न सोचें बल्कि गौ-उत्पादों का विकास कर स्वावलंबी बनें सरकारी सहायता के भरोसे बैठने की बजाय कुशलता से खर्च कम करने के लिए दानदाताओं से दान में पैसों के बदले चारे लें ऐसा क्यों नहीं हो सकता? गाय के दूध, गौमूत्र और गोबर का कुशलतापूर्वक उपयोग कर ईंधन, विद्युत व औषधि का निर्माण करने के साथ-साथ तंदुरुस्त गायों को संभालने वाली जीवंत गौशालाओं के लिए संस्था, समाज और व्यक्ति अपना योगदान देकर अपनी उदारता का परिचय दे सकते है।
कोई भी यह न भूले की आपकी गाय किसी कामधेनु से कम नहीं है। कामधेनु शब्द में ही गाय की उपयोगिता और उपकारिता निहित है। कामधेनु यानि मानव जाति की मनोकामना अर्थात ज़रूरतें सात्विकता एवं संवेदना से पूर्ण करने का सामर्थ्य रखने वाली, अनिष्टों को दूर करने वाली, समस्याओं का निराकरण करने वाली तथा भविष्य का आधार, कामधेनु यानि अर्थ, आरोग्य, अध्यात्म, ऊर्जा, सौंदर्य तथा पर्यावरण की आराध्य देवी, यह वर्णन किसी स्वर्ग की कामधेनुओं का नहीं बल्कि भारतीय गायों का है। भारतीय गाय आज भी कामधेनु है यदि योग्यता पूर्ण देखभाल की जाए तो भारत के प्रत्येक परिवार का पेट भरने और देश को अपने पैरों पर खड़ा करने में हमारा गोवंश आज भी समर्थ है। गोधन हमारे कृषिप्रधान देश का सच्चा धन है इस देश की समृद्धि कत्लखानों या कारखानों में नहीं बल्कि गोवंश आधारित कृषि में है गोधन का कत्ल बंद होने पर करोड़ों का नुकसान होगा ऐसी सोच रखने वालों को नहीं पता कि गायों को बचाने से देश को उस से दस गुना अधिक फायदा होगा। ऋग्वेद कहता है कि गाय ऐश्वर्य है। यह सूत्र एक समय में भारत के प्रत्येक नगर में जीवंत था। गायों की सेवा से भारत समृद्ध एवं ऐश्वर्यवान था। स्वास्थ्य एवं समर्थ था। गौ आधारित कृषि का एक विज्ञान था। आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति और कृषि उपकरणों के आश्रित किसानों को इन बीमारियों से मुक्त होना होगा, गोवंश का कत्ल कर के जो प्राप्त किया जा सकता है। उससे कई गुना ज्यादा गोवंश को जीवित रख के पाया जा सकता है। यह समझने की आज ज्यादा जरूरत है।
गोवंश को जीवित रखकर भी अनेक उद्योगों को विकसित कर सकते है, इस बात की आवश्यकता को समझना ही नहीं अपितु कार्यान्वित भी करना हमारी सबकी जिम्मेदारी है। विश्व का हर्बल मार्केट 50 हजार करोड़ का है उसमें भारत का हिस्सा मात्र 4 प्रतिशत है मात्र फेयरनेस क्रीम के उत्पादक 12000 करोड़ का व्यापार करते हैं। हमारे गौवंश के संवर्धन से दूध और दूध के उत्पाद, गौमूत्र और उससे बनता असाध्य रोगों की दवाइयाँ, गोबर गैस, ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर, ऑर्गेनिक पेस्टिसाइड, अमृत माटी, साबुन, सौंदर्य प्रसाधनों वगैरा-वगैरा सैकड़ों उद्योग विकसित किए जा सकते हैं। गाँव-गाँव में क्लीनिक खोलकर, गोबर गैस संयंत्र से ऊर्जा दे कर आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन के दरम्यान उनके कहने पर सरकार द्वारा कराये गए सर्वेक्षण वर्ष 1971 के अनुसार देश की 65 प्रतिशत कृषि गोवंश द्वारा होती थी जिससे सालाना-2.40 करोड़ टन डीजल की बचत होती है, जिसकी कीमत 40000 करोड़ रुपये है। दूसरे एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत की रेल का समग्र नेटवर्क जितने मुसाफिरों और माल का वहन करता है। उससे चार गुना ज्यादा मुसाफिरों और माल का वहन इस देश के पशु करते थे। “गोमये वसते लक्ष्मी” और “गौमूत्रे धनवंतरी” यह दोनों सूत्र याद रखने योग्य है सृष्टि के असंतुलित चक्र को संतुलित करने की ताकत गोवंश के गोबर एवं मूत्र में है।
