शहर की बसों में लटकते लोग हों या मोहल्लों के नुक्कड़ पर जमा ताश की चौपाल— हम सब एक अजीब जल्दी में हैं। कोई चाहता है कि दो मिनट में ज्ञान मिल जाए, कोई यह कि पाँच मिनट में शांति।
मानो अध्यात्म भी इंस्टैंट नूडल्स हो गया हो—
पानी डालो, हिलाओ और दो मिनट में भक्ति तैयार।
लेकिन महाप्रभु का तरीका कुछ और था। उन्होंने जगाई-माधाई जैसे बिगड़े हुए लोगों को भी बदल दिया पर रास्ता सीधा नहीं था— पहले उनके मन में श्रद्धा जगाई, फिर उन्हें हरिनाम दिया।
आज के समय में यह क्रम उलट गया है। लोग नाम तो ले लेते हैं, लेकिन श्रद्धा की जगह खाली रहती है—जैसे बिजली तो है, पर स्विच ऑन ही नहीं किया।
महाप्रभु ने अपराधियों को सुधारा और आज हम अपने “शांतिहीन” मन को नहीं संभाल पा रहे। क्योंकि सच यह है— नाम तभी असर करता है जब मन तैयार हो।
भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं— भक्त-सेवा जिनका आनंद है, हरिनाम जिनका हार है, उन्हीं की साधना फलित होती है।
लेकिन शहर का दृश्य दूसरा है। हमारे यहाँ श्रद्धा भी समय देखकर आती है— ऑफ़िस में टेंशन हो तो नाम,
बीमारी आए तो नाम, बाक़ी दिनों में रिंगटोन भी बदल जाती है। ये आध्यात्मिकता नहीं, सुविधा-केंद्रित प्रयोगशाला है। जगाई-माधाई के पास तो कोई बहाना नहीं था। वे खुलकर पाप करते थे— कम से कम दोहरे चरित्र तो नहीं थे और जब महाप्रभु ने श्रद्धा जगाई, तो वे मिट्टी की तरह मुलायम हो गए पर हम..? हमारा अहंकार ही पत्थर है, जो श्रद्धा को भीतर आने ही नहीं देता। हरिनाम लेने से पहले मन को श्रद्धा से सिंचें—यही महाप्रभु का संदेश है, यही ठाकुर की वाणी है, और यही शहर की ज़रूरत भी है। क्योंकि जब तक मन श्रद्धा से नहीं भीगेगा, हरिनाम भी सिर्फ़ ध्वनि रहेगा और जब श्रद्धा उतर जाएगी— उसी नाम में वह शक्ति है जो एक अपराधी को साधु बना दे और एक उलझे हुए शहर को भी राहत की साँस।
हरे कृष्ण…
भक्त चेदीराज दास
