गंगा की तरह पवित्र लोग
शहर की गलियों में लोग चेहरों से इंसान तौलते हैं।
किसी की कमीज़ पुरानी हो तो उसे “गरीब” कहा जाता है, किसी का बदन टेढ़ा–मेढ़ा हो तो “भगवान ने ऐसा क्यों बनाया” पूछ लिया जाता है, और जिनके कपड़े चमकदार हों, उनसे लोग ऐसे झुककर मिलते हैं
जैसे चरित्र नहीं, कपड़ों की इस्त्री देख रहे हों। लेकिन शहर की इस धूल-भरी समझ और भगवान की दृष्टि में ज़मीन–आसमान का फर्क है।
आध्यात्मिक परंपरा कहती है—
जिस व्यक्ति का मन कृष्णभाव से निर्मल हो चुका हो, उसके शरीर में दिखाई देने वाली कमजोरियाँ
ठीक वैसी हैं जैसे बरसात में गंगा का पानी गंदला दिखना। बरसात में गंगा में मिट्टी भी बहती है, झाग भी उठता है, किनारे पर कचरा भी आ जाता है। पर क्या किसी ने कहा कि गंगा अपवित्र हो गई..? नहीं।क्योंकि गंगा की पवित्रता उसकी आत्मा है, उसकी सतह की नहीं। ठीक यही बात इंसानों पर भी लागू होती है। हमारे शहर में न जाने कितने लोग हैं जिनके कपड़े फट चुके हैं, जिनका शरीर बीमारी से झुका है, जिनकी बोली में ग्रामीणपन है या जिनकी चाल में हिचक है। शहर की नज़र उन्हें “कमी” और “दोष” के नाम से पुकारती है। लेकिन भगवान की नज़र कहती है— ये वही लोग हैं जिनकी चेतना भीतर से गंगा की तरह पवित्र है। जो प्रेम, समर्पण और सत्य के रास्ते पर चलते हैं, उनके शरीर पर पड़े धूल के छींटे—उन्हें कभी दूषित नहीं करते। असल में दोष उनकी देह में नहीं, हमारी दृष्टि में है।
शहर की भीड़ अगर इतनी समझ रखती कि लोगों को उनके दिल से पहचानती, तो यह शहर सिर्फ जगमगाता नहीं—धन्य हो जाता।और याद रखिए— जो लोग आध्यात्मिक सत्य को समझते हैं, वे गंगा की धारा में उतरते समय कभी यह नहीं देखते कि पानी साफ है या गंदला। वे जानते हैं—गंदलापन ऊपर है, गहराई में सदा शुद्धता बहती है।
हमारा शहर भी ऐसा ही हो— जहाँ लोगों को सतह से नहीं, उनके भीतर बहती रोशनी से पहचाना जाए।
भक्त चेदीराज दास
